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हिड़मा क्यों बना संतोष

🔥 हिड़मा की मौत और आदिवासी अस्तित्व की लड़ाई।

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“संतोष से हिडमा क्यों बना?”

यह सवाल सिर्फ़ एक व्यक्ति की कहानी नहीं है, बल्कि पूरे आदिवासी समाज के दर्द, शोषण और उपेक्षा का परिणाम है।


चलिए जानते हैं, संतोष से हिडमा क्यों बना❓


कारण एक नहीं — कई गहरी सच्चाइयाँ हैं🔥


1️⃣ बचपन से ही अन्याय और दमन का सामना

संतोष (हिडमा) का बचपन उसी क्षेत्र में बीता जहाँ:

  • फर्जी केस में आदिवासियों को नक्सली बनाकर जेल भेजा जाता था

  • गाँवों में बार-बार पुलिस ऑपरेशन होते थे

  • महिलाएँ सुरक्षा बलों और माओंवादियों — दोनों से पीड़ित होती थीं

  • बच्चा डर, असुरक्षा और संघर्ष के बीच बड़ा होता था

  • जिस बच्चे की दुनिया डर और दमन से शुरू होती है, वह सिस्टम पर भरोसा कैसे करे?


2️⃣ स्कूल, शिक्षा, अवसर — कुछ भी नहीं मिला

संतोष को:

  • न अच्छी शिक्षा मिली

  • न सही स्कूल

  • न कॉलेज

  • न करियर का कोई अवसर

जिस बच्चे के पास किताबों का विकल्प ही नहीं होता, वही संघर्ष के रास्ते पर धकेल दिया जाता है।


3️⃣ जल–जंगल–जमीन पर बढ़ता हमला

बस्तर के आदिवासियों ने देखा:

  • उनकी जमीन खनन कंपनियों को दी जा रही है

  • जंगल काटे जा रहे हैं

  • उनकी संस्कृति, देवस्थल, पहाड़ — सब खतरे में हैं

  • इस माहौल में संतोष जैसे युवाओं में सबसे बड़ा डर था।

“अगर जंगल गया, तो हम खत्म हो जाएंगे।”


4️⃣ शांतिपूर्ण विरोध पर भी दमन

जब आदिवासी शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करते थे, तो:

  • आंदोलन कुचले जाते

  • नेताओं को फर्जी केस में फँसाया जाता

  • महिलाओं को प्रताड़ित किया जाता

  • गाँव वालों को नक्सली बताकर उठा लिया जाता

जब आवाज़ दबाई जाती है, तो बंदूक बोलने लगती है।


5️⃣ सोनी सोरी जैसी घटनाओं ने हिडमा की सोच बदल दी

जब एक आदिवासी महिला—

  • सोनी सोरी को सिर्फ़ विरोध करने के कारण पुलिस - प्रशासन ने उनके गुप्तांगों में पत्थर भरकर प्रताड़ित किया गया,

तो संतोष जैसे युवाओं के मन में व्यवस्था के प्रति सिर्फ़ एक बात रह गई "जो सत्ता हमारी बहनों का सम्मान नहीं कर सकती, वह हमारी ज़िंदगी भी छीन लेगी।"


6️⃣ हिडमा को आदिवासियों ने “रक्षक” कहा, नक्नसलवादी नहीं

बस्तर के लोगों के अनुसार:

  • हिडमा ने गाँव वालों की जमीन नहीं ली

  • न किसी गरीब को लूटा

  • न कोई संपत्ति बनाई

  • न कोई महल खड़ा किया

  • न लड़कियों का शोषण किया

  • न किसानों से वसूली की

इसके विपरीत, ग्रामीण कहते हैं कि,

“हिडमा ने कंपनियों को जंगल में घुसने नहीं दिया।”


इसलिए वह जनता के बीच “जंगल का बेटा” और “रक्षक” कहलाया हैं।


7️⃣ गरीबी + शोषण + अन्याय = हिडमा

जब एक समाज:

  • भूखा हो

  • बेरोजगार हो

  • जमीन खो रहा हो

  • आवाज दबाई जा रही हो

  • महिलाएँ प्रताड़ित हों

  • न्याय न मिले

तो वह समाज प्रतिरोध को जन्म देता है।

हिडमा उस प्रतिरोध की उपज था।


8️⃣ सरकार ने कारण नहीं समझे — सिर्फ़ बंदूक उठाई

सरकार ने यह नहीं पूछा:

  • आदिवासी नाराज़ क्यों हैं?

  • जंगल बचाने की मांग गलत कैसे है?

  • विकास आदिवासियों को क्यों नहीं पहुँचता?

  • स्थानीय लोग हिडमा को योद्धा क्यों मानते हैं?

सरकार ने सिर्फ़ इतना किया—

"उस पर इनाम लगा दिया और उसे खत्म कर दिया।"


लेकिन विचार मारे नहीं जाते।

संघर्ष खत्म नहीं होता।

हिडमा एक व्यक्ति था —

पर उसके पीछे हजारों दर्द थे।

🌳 संतोष “हिडमा” इसलिए बना क्योंकि सिस्टम ने उसे मजबूर किया।


संतोष जन्म से नक्सली नहीं था।

वह बना—

👉 दमन से,

👉 गरीबी से,

👉 शोषण से,

👉 जंगल की लूट से,

👉 और व्यवस्था की चुप्पी से।


अगर देश वास्तव में चाहता है कि फिर कोई हिडमा न बने,

तो दमन नहीं — संवाद, न्याय और सम्मान देना होगा।

अगर हिड़मा नक्सली था, तो मैं भी नक्सलवाद का विरोध करता हूँ। लेकिन सवाल यह है कि अगर वह सच में सिर्फ़ एक अपराधी था, तो जनता के बीच वह ‘हीरो / रक्षक’ क्यों बन गया? उसके अंतिम समय में इतनी भीड़ क्यों उमड़ी? यह सवाल किसी भी संवेदनशील समाज को सोचने पर मजबूर करता है। आदिवासी समाज किसी गलत व्यक्ति का अंध-समर्थन नहीं करता। सच्चे आदिवासी न जल–जंगल–जमीन के खिलाफ जाते हैं, न प्रकृति के किसी हिस्से को नुकसान पहुंचाते हैं, न ही अपनी खुद्दारी और आत्मसम्मान से समझौता करते हैं। लेकिन जब उन्हें लगता है कि उनके अस्तित्व, प्रकृति या देश की सुरक्षा पर खतरा है, तब वे सच के पक्ष में खड़े होते हैं, चाहे हालात उन्हें हथियार उठाने के लिए क्यों न मजबूर कर दें।

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मुद्दा सिर्फ़ हिड़मा का नहीं है। मुद्दा उन अनगिनत बेगुनाह आदिवासियों का है, जिन्हें बिना वजह नक्सली बताकर मार दिया जाता है। जिनकी आवाज़ कहीं नहीं सुनी जाती, जिनके परिवार न्याय के लिए भटकते रहते हैं, और जिनके दर्द आंकड़ों और प्रेस नोट्स के पीछे गुम हो जाते हैं। हिड़मा की मौत ने आदिवासी समाज के भीतर पुराने जख्म को फिर से खोल दिया है, क्योंकि वे हर उस व्यक्ति को याद कर रहे हैं जो बिना वजह मारा गया।

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हिड़मा की मौत के बाद कई सवाल खड़े हुए। ग्रामीणों का दावा है कि उसकी पत्नी को पहले सामान्य कपड़ों में दिखाया गया और बाद में उसे जबरन वर्दी पहनाई गई। लोग यह भी पूछ रहे हैं कि अगर हिड़मा इतना बड़ा "नक्सलवाद" था, तो ग्रामीणों ने उसके लिए ‘लाल सलाम’ क्यों किया? हर घर से उसके लिए संवेदना क्यों निकली? और सबसे बड़ा सवाल, दूसरी जातियों के नक्सलियों को तो रेड कारपेट मिलता है, उन्हें ‘सरेंडर’ का मौका दिया जाता है, लेकिन आदिवासी नक्सली बताए गए व्यक्ति को सीधे मौत क्यों? क्या सिर्फ़ इसलिए कि वह आदिवासी था?

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देश की विडंबना यह है कि आज हमारे पास एक आदिवासी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जी हैं, फिर भी आदिवासियों पर गोलियाँ चल रही हैं। समाज यह देखकर आहत है कि एक आदिवासी राष्ट्रपति होते हुए भी आदिवासियों के खिलाफ हो रहे अन्याय पर कोई सशक्त आवाज़ नहीं उठ रही है। इससे यह भावना गहरी होती जा रही है कि सरकारें आदिवासियों के सवाल नहीं सुनतीं, और इसी कारण कुछ लोग अलग दिशा में धकेल दिए जाते हैं।

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यह भी सच है कि आदिवासी नक्सली पैदा नहीं होते, बल्कि उन्हें परिस्थितियाँ नक्सली बना देती हैं। जब उनकी जमीन ली जाती है, जंगल कॉरपोरेट कंपनियों को दिए जाते हैं, और उनकी आवाज़ दबा दी जाती है, तब कई युवा निराश होकर गलत रास्ता चुन लेते हैं। पर इसका मतलब यह नहीं कि वे अपराधी हैं; इसका मतलब है कि व्यवस्था उन्हें समझने में विफल रही है।


बस्तर का हिड़मा मंडावी 30 साल तक जंगलों की रक्षा में लगा रहा यह ग्रामीणों का दावा है। बस्तर के जंगल देश के फेफड़े हैं, और वही जंगल आज खनन कंपनियों की नज़र में हैं। ग्रामीण मानते हैं कि हिड़मा जैसे लोगों के कारण बस्तर के जंगल आज भी बचे हुए हैं। लेकिन इन्हीं जंगलों की कीमत चुकाते हुए उसे देशद्रोही करार दिया गया, उस पर करोड़ों के इनाम लगाए गए, और अंततः उसे मार दिया गया।

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भारत का राजनीतिक और आर्थिक ढांचा भी इस कहानी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। बड़े पूंजीपति चुनावों में निवेश करते हैं, और बदले में खनिज क्षेत्रों पर अधिकार मांगते हैं। सरकारें फिर उसी दिशा में काम करती हैं। फौज का काम देश की सीमाओं की रक्षा है, लेकिन उन्हें जंगलों में भेजा जाता है, जहाँ वे अपने ही देश के युवाओं से लड़ते हैं। यह एक दुखद सच्चाई है कि पूंजीपतियों ने ऐसी परिस्थिति बनाई जिसमें फौज के जवान और आदिवासी युवा—दोनों आपस में लड़कर मर रहे हैं, जबकि असली लाभ कॉरपोरेट जगत को मिल रहा है।

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यह भी भूलना नहीं चाहिए कि माओवादी भी निर्दोष नहीं। वे गांवों में अवैध वसूली करते हैं, जंगल की उपज को बेचते हैं, लड़कियों का शोषण करते हैं, सरकारी ठेकेदारों से मोटा पैसा लेते हैं और दिल्ली तक पैसे भेजते हैं। कई बार विदेशी देशों से फंडिंग भी आती है। उनके कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और विकास की हर संभावना खत्म हो जाती है। यानी आदिवासी समाज दो तरफ़ से पीड़ित है—एक ओर सरकारें और दूसरी ओर माओवादी।

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अगर एक दिन पूंजीवादियों ने जंगलों को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया, तो देश को भी भारी नुकसान होगा। उस दिन लोग समझेंगे कि जिन लोगों को “नक्सली” कहकर मार दिया गया, शायद वही जंगलों के असली रक्षक थे। पहाड़ एक बार मिट्टी से खाली कर दिए जाएं तो वे लाखों सालों तक वापस नहीं आते। इस लड़ाई में असली नुकसान आदिवासियों का नहीं, पूरे देश का है।



आज समय बदल चुका है। बंदूक की क्रांति का दौर खत्म हो गया है। सरकारें बेहद शक्तिशाली हैं। अब बदलाव कानून, राजनीति और न्यायालयों के माध्यम से ही आएगा। आदिवासी समाज को एकजुट होकर गलत एनकाउंटर के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए, कोर्ट में केस करना चाहिए, और अपने हक़ की लड़ाई शांतिपूर्ण तरीके से लड़नी चाहिए।

अंत में, हिड़मा सिर्फ़ एक नाम नहीं है, वह उस संघर्ष का प्रतीक है जो जल–जंगल–जमीन और आदिवासी अस्तित्व बचाने के लिए लड़ा जा रहा है। आदिवासी समाज प्रकृति का पूजक है, बूढ़ा देव का उपासक है, और जल–जंगल–जमीन का रक्षक है। यह संघर्ष सिर्फ़ आदिवासियों का नहीं, पूरे देश के भविष्य का सवाल है।


🔥 आज़ादी के 75–78 साल बाद भी छत्तीसगढ़ क्यों नहीं बदला? क्यों पनपा नक्सलवाद और कौन है असली जिम्मेदार? 🔥


भारत अपने आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाने के बाद भी छत्तीसगढ़ वह विकास नहीं देख पाया, जो 75 – 78 वर्षों में होना चाहिए था। सच्चाई यह है कि छत्तीसगढ़ की सरकार हो, केंद्र की सरकार हो या राज्य का प्रशासन, तीनों स्तरों पर भ्रष्टाचार और लापरवाही ने इस राज्य को पीछे धकेल दिया है। यही वजह है कि आज भी छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सुरक्षा जैसे बुनियादी अधिकार एक सपना बने हुए हैं।

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दशकों से आदिवासियों के साथ दमनकारी नीतियाँ, शोषण और उपेक्षा जारी है। परिणाम यह है कि नक्सलवाद सिर्फ़ एक सुरक्षा समस्या नहीं, बल्कि सरकारों द्वारा लंबे समय तक दिखाई गई बेरुखी, अत्याचार और असमान विकास का सीधा परिणाम बन चुका है। आज हालात यह हैं कि सरकारें खुद हथियार भी बना रही हैं और नक्सली भी।

और इस दोतरफा हिंसा के बीच सबसे ज्यादा कुचला जा रहा है आदिवासी समाज, जिसकी जमीन, खनिज और जंगलों पर बड़े कॉर्पोरेट समूहों की नजर है।


छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा में खनिज संपदा अरबों–खरबों की है। लेकिन जिन आदिवासियों की मिट्टी के नीचे यह संपदा छुपी है, वे आज भी सबसे गरीब हैं। सरकार विकास के नाम पर वही करती है जो कॉर्पोरेट कंपनियाँ चाहती हैं —

जंगल काटो, पहाड़ उखाड़ो और आदिवासियों को हटा दो।


इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की तीखी टिप्पणी पूरे सिस्टम की पोल खोल देती है।

आदिवासियों की जमीन को अमीर और रसूखदार लोगों के नाम ट्रांसफर करने की बढ़ती घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा:

🔴 “इसी चलन की वजह से उन इलाकों में नक्सलवाद पनपा है। आदिवासियों की जमीन हड़प ली जाती है, अगर अदालत और सरकार उनका संरक्षण नहीं करेंगे तो वे हथियार उठाने के लिए मजबूर हो जाएंगे।”


यह टिप्पणी सिर्फ़ किसी एक राज्य के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के आदिवासी क्षेत्रों के लिए करारा तमाचा है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी पूछा:

“क्या हम आँखें मूँदकर यह सब देखते रहें?”


यानी न्यायपालिका तक यह समझ चुकी है कि आदिवासी नक्सली पैदा नहीं होते, उन्हें भ्रष्ट सरकारें और लालची नेता नक्सली बनाने पर मजबूर करते हैं।


यह बेहद शर्मनाक है कि जिस जमीन को CNT-Act, PESA, Forest Rights Act जैसी संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है, उसी जमीन को नेता, उद्योगपति और अधिकारी मिलकर हड़प लेते हैं, और जब आदिवासी विरोध करता है तो उसे देशद्रोही, नक्सली या अपराधी ठहरा दिया जाता है।


सुप्रीम कोर्ट जिस मामले की सुनवाई कर रही है, उसमें झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन तक पर आरोप है कि उन्होंने आदिवासियों की जमीन को गैर-कानूनी तरीके से प्रभावशाली लोगों को ट्रांसफर किया। यानी शोषण नीचे से नहीं, ऊपर से शुरू होता है।


छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा —

तीनों राज्यों की कहानी एक जैसी है:

जहाँ भी खनिज हैं, वहाँ विकास नहीं;

जहाँ भी जंगल हैं, वहाँ सरकारी दमन;

जहाँ भी आदिवासी हैं, वहाँ प्रशासन की बेरुखी।


और फिर यही सरकारें पूछती हैं, “नक्सलवाद क्यों पनप रहा है❓”


अरे, नक्सलवाद पनपता नहीं, आपकी नीतियाँ उसे जन्म देती हैं।🤷


जब आदिवासी के पास न नौकरी, न अस्पताल, न शिक्षा, न सुरक्षा।

  • जब उसकी जमीन पर बुलडोज़र चलाया जाए;

  • जब उसकी बेटी पर अत्याचार हो;

  • जब उसका विरोध खामोश कर दिया जाए —

  • तो वह आखिर क्या करेगा❓


एक पूरा समाज जब पटरी से उतरा हो, तो हथियार उठाने वाले लोग समस्या नहीं, उस दमन का परिणाम होते हैं जिसे सरकारें जानबूझकर पैदा करती हैं।


आखिरकार, जिस राज्य की खनिज संपदा अरबों की हो और वहाँ के आदिवासी भूख से लड़ते हों

वहाँ नक्सलवाद नहीं,

शोषणवाद पनपता है,

यही सच्चाई हैं।


सरकार विकास के नाम पर आदिवासी की जल–जंगल–ज़मीन लूटना बंद करे 🔥


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सरकार को यह समझना होगा कि विकास का अर्थ किसी समुदाय का अस्तित्व मिटाना नहीं होता। वर्षों से विकास के नाम पर खनन, उद्योग, सड़कें और परियोजनाएँ इस तरह थोप दी गईं कि आदिवासी समाज अपने ही पुरखों की जमीन से बेदखल होकर दर-दर भटकने को मजबूर हुआ। यह विकास नहीं, बल्कि जल–जंगल–जमीन की व्यवस्थित लूट है, जो आदिवासी समाज की संस्कृति, पहचान और जीवन पर सीधा हमला है।

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आदिवासी समाज की जल–जंगल–जमीन सिर्फ़ संपत्ति नहीं, बल्कि उनकी जीवन-रेखा, संस्कृति, परंपरा और आध्यात्मिक पहचान है। इन्हें खो देने का मतलब है आदिवासी समुदाय का धीरे-धीरे खत्म हो जाना। इसीलिए सरकार को यह लूट उजाले में नहीं, बल्कि संविधान की धाराओं, PESA, FRA, CNT, SPT, 5th Schedule का सम्मान करते हुए रोकनी चाहिए। आदिवासी समाज को उनके संवैधानिक अधिकार, हक और आत्मशासन को विधिवत लागू करने की अनुमति देनी चाहिए, क्योंकि यही अधिकार उन्हें भारत के संविधान ने दिए हैं।


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आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम सभा सर्वोच्च है, लेकिन सरकारें और अधिकारी ग्राम सभा को सिर्फ़ औपचारिकता मानकर उल्लंघन करते रहे हैं। विकास के नाम पर फर्जी सहमतियाँ, दबाव, डर, केस, दमन और फर्ज़ी रिपोर्टों के सहारे परियोजनाएँ थोपना एक प्रकार का आधुनिक उपनिवेशवाद है, जो लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ है।

सरकारें यह भी समझें कि आदिवासियों के जीवन में बेवजह हस्तक्षेप ने ही असंतोष, संघर्ष और हिंसा को जन्म दिया है। जहाँ-जहाँ बाहरी ताकतों ने आदिवासी समाज के जीवन-पद्धति में दखल दिया, वहाँ समस्याएँ पैदा हुईं।

जहाँ-जहाँ आदिवासियों को उनके तरीके से जीवन जीने दिया गया, वहाँ शांति और समृद्धि दोनों कायम रहे।


इसलिए अब समय आ गया है कि सरकार आदिवासी समाज के जीवन, प्रशासन, संस्कृति और आर्थिक प्रणाली में अनावश्यक दखल देना बंद करे। बाहरी दखल हमेशा उथल-पुथल को जन्म देता है। आदिवासी समाज अपनी प्रकृति, परंपरा और ग्राम शासन व्यवस्था के अनुसार स्वयं निर्णय लेने में सक्षम है।


देश तभी आगे बढ़ेगा जब आदिवासियों को आगे बढ़ने दिया जाएगा, जब उनकी जमीन, जंगल और संसाधनों पर उनकी ही मालिकाना हक़ को स्वीकार किया जाएगा और जब सरकार वास्तविक विकास के लिए भागीदारी, सम्मान और संवैधानिक अधिकारों को सर्वोच्च रखेगी।



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