
पैर में 50 रुपये की चप्पल और हाथ में 2 लाख की राइफल
- S S Mahali

- 4 नव॰
- 5 मिनट पठन
घटता नक्सलवाद या बदलता चेहरा — बच्चों के हाथ में थमा बंदूक।

यह दृश्य सचमुच सोचने पर मजबूर कर देता है। क्या यह किसी योजना का हिस्सा है, या फिर सरकार की कोई नई चाल? छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्यों में यह तस्वीर किसी आम व्यक्ति की नहीं, बल्कि उन आदिवासी युवाओं की है जिन्हें कभी जंगल बचाने, अपनी जमीन और संस्कृति की रक्षा करने के लिए जेलों में ठूंस दिया गया। रिपोर्टों के अनुसार, छत्तीसगढ़ की जेलों में हजारों आदिवासी ऐसे मामलों में बंद हैं जिनमें उनके खिलाफ ठोस सबूत भी नहीं मिले। कई मामलों में वर्षों जेल में रहने के बाद उन्हें बरी कर दिया गया, लेकिन तब तक उनकी ज़िंदगी बर्बाद हो चुकी थी। झारखंड में भी स्थिति कुछ अलग नहीं है। यहाँ भी कई आदिवासी महिलाएँ और बेटियाँ हिंसा की शिकार हुई हैं। कुछ घटनाएँ प्रकाश में आईं, जबकि कई अब भी अंधेरे में दबी हैं।
मड़कम हिड़मे जैसे मामलों ने आदिवासी समाज की पीड़ा को उजागर किया, जहाँ जंगलों में महिलाओं के साथ उत्पीड़न और अत्याचार के गंभीर आरोप लगे। कई सामाजिक संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि ये घटनाएँ केवल कानून-व्यवस्था का नहीं, बल्कि आदिवासी अस्तित्व और सम्मान का प्रश्न हैं। जिन लोगों ने जंगल, जमीन और जल की रक्षा के लिए आवाज़ उठाई, वे आज अपराधी बना दिए गए हैं। यह स्थिति बताती है कि कहीं न कहीं व्यवस्था में गहराई से अन्याय और असमानता मौजूद है।
आज जब एक ओर आदिवासी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें हथियार थमा दिए जा रहे हैं। पैर में सस्ती चप्पल और हाथ में महंगी राइफल इस बात का प्रतीक है कि व्यवस्था ने उन्हें सुरक्षा नहीं, बल्कि संघर्ष का औजार दे दिया है। सवाल यह है कि क्या यह सच में आत्मरक्षा का उपाय है या फिर किसी राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा? समय आ गया है कि समाज इन प्रश्नों पर गंभीरता से सोचे और यह समझे कि जंगल, जमीन और जनजातीय संस्कृति की रक्षा केवल आदिवासियों की नहीं, बल्कि हम सबकी जिम्मेदारी है।
🟥 रिपोर्ट : घटता नक्सलवाद या बदलता चेहरा — बच्चों के हाथ में बंदूक क्यों?
देश से नक्सलवाद खत्म करने की मुहिम अब निर्णायक दौर में है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ऐलान किया है कि मार्च 2026 तक भारत नक्सलवाद-मुक्त होगा। छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और महाराष्ट्र के कई हिस्सों में सुरक्षा बलों का अभियान लगातार जारी है। बड़े नक्सली कमांडर मारे जा रहे हैं, सैकड़ों सरेंडर कर चुके हैं और हजारों को जेल भेजा गया है। लेकिन इसी बीच एक चिंताजनक और अमानवीय तस्वीर सामने आई है — नक्सलियों ने अब छोटे बच्चों को हथियार थमा दिए हैं।

🔶 बच्चों को जबरन बनाया जा रहा "योद्धा"
बस्तर के माड़ क्षेत्र में हाल ही में सामने आई रिपोर्ट के अनुसार, नक्सलियों ने धमकाकर 130 ग्रामीणों को जबरन अपनी सेना में भर्ती किया, जिनमें करीब 80 नाबालिग और कुछ बच्चे मात्र 9 से 11 साल के हैं।
यह खुलासा एक माओवादी दस्तावेज़ से हुआ, जो हालिया मुठभेड़ स्थल से बरामद किया गया। दस्तावेज़ में लिखा था कि घटते कैडर और कम होती वैचारिक पकड़ के कारण अब संगठन “कम उम्र के बच्चों” को भर्ती करने लगा है।
🔶 घटते कैडर और बढ़ती बेबसी
सुरक्षा बलों के अनुसार, पिछले एक वर्ष में —
413 नक्सली मारे गए,
1054 ने आत्मसमर्पण किया, और
1000 से अधिक गिरफ्तार हुए।
25 मार्च को दंतेवाड़ा में हुई मुठभेड़ में 25 लाख इनामी नक्सली कमांडर सुधीर उर्फ सुधाकर भी मारा गया। सुधीर नए रंगरूटों को हथियार चलाने, गुरिल्ला युद्ध और आईईडी बनाने की ट्रेनिंग देता था।
संगठन की रीढ़ समझे जाने वाले इन कमांडरों की मौत से नक्सलवाद का ढांचा हिल गया है, जिससे वे बच्चों को आसान निशाना बना रहे हैं।
🔶 विचारधारा से नहीं, मजबूरी से भर्ती
सरेंडर करने वाले पूर्व नक्सलियों ने बताया कि अब कोई भी युवा विचारधारा से प्रेरित होकर संगठन में नहीं जा रहा।
माओवादी गांवों में पंचायत बुलाकर धमकी देते हैं —
हर गांव से तय संख्या में बच्चे और युवाओं को भेजना होता है। जो परिवार मना करते हैं, उन्हें सामाजिक रूप से बहिष्कृत किया जाता है, उनके घर जलाए जाते हैं या जंगल छोड़ने को मजबूर किया जाता है।
यह न केवल बाल-शोषण है बल्कि आदिवासी जीवन और संस्कृति पर गहरी चोट है।
🔶 बदल गया नक्सली भर्ती तंत्र
पहले माओवादी अपने कल्चरल विंग "चेतना नाट्य मंच" में बच्चों को शामिल करते थे — जहाँ उन्हें गीत, नाटक और नारेबाजी के ज़रिए मानसिक रूप से तैयार किया जाता था।
लेकिन अब उस प्रक्रिया को छोड़ दिया गया है।
पुलिस सूत्रों के अनुसार, अब सीधे हथियार पकड़ा दिए जा रहे हैं।
इतना ही नहीं, जो बच्चे प्रशिक्षण छोड़ने की कोशिश करते हैं, उन्हें तालिबानी सजा दी जाती है — गाँव लौटने या परिवार से मिलने तक की अनुमति नहीं होती।
🔶 मानवीय संकट की आहट
बस्तर और झारखंड के वनक्षेत्रों में यह स्थिति न केवल सुरक्षा चुनौती है, बल्कि एक मानवीय संकट भी है।
बचपन छीनने की यह प्रक्रिया समाज के लिए सबसे बड़ी विफलता है।
एक तरफ सरकार "विकास और शांति" की बात करती है, दूसरी ओर बच्चों के हाथ में बंदूक देखकर सवाल उठता है?
क्या इन इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और आत्म-सम्मान का अभाव ही उन्हें इस दिशा में धकेल रहा है?
🔶 विशेषज्ञों की राय
सुरक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि केवल ऑपरेशन चलाने से समस्या खत्म नहीं होगी।
जरूरत है —
1. सामाजिक पुनर्वास नीति की,
2. बाल संरक्षण आयोगों की सक्रियता की,
3. गांवों में भरोसा निर्माण अभियान की,
4. और उन परिवारों के लिए सहायता योजनाओं की, जिन्होंने अपने बच्चों को खो दिया।
नक्सलवाद से लड़ाई सिर्फ बंदूक से नहीं, बल्कि विश्वास और विकास से जीती जा सकती है।
बच्चों के हाथों में बंदूकें हमारे समाज की सबसे बड़ी पराजय हैं।
नक्सलवाद का यह नया रूप न केवल हिंसक है बल्कि नैतिक और मानवीय सीमाओं को भी लांघ रहा है।
अब यह केवल “सुरक्षा” नहीं बल्कि “संवेदनशीलता” की लड़ाई है — जहाँ हर सरकारी एजेंसी, समाजसेवी संगठन, और हम सभी को मिलकर कहना होगा।
“बचपन को बचाओ, बंदूक नहीं किताब दो।”
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