top of page

चंपई सोरेन का आंदोलन और आदिवासी अधिकार

✊ जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई : चंपई सोरेन का आंदोलन और आदिवासी अधिकार।

ree

झारखंड की राजनीति और समाज दोनों ही 24 अगस्त 2025 को एक बड़े घटनाक्रम के साक्षी बने। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में सेराइकेला से भाजपा विधायक एवं पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन को प्रशासन ने उनके आवास पर नज़रबंद कर दिया। यह कदम इसलिए उठाया गया क्योंकि उन्होंने ऐलान किया था कि वे रांची जिले के नगड़ी (कांके) क्षेत्र में प्रस्तावित रिम्स-2 स्वास्थ्य संस्थान के लिए अधिग्रहित की जा रही खेती योग्य भूमि पर हल जोतेंगे और धान रोपेंगे। यह आंदोलन “हल जोतो – रोपा रोपो” के नाम से घोषित किया गया था और इसका उद्देश्य स्पष्ट था—आदिवासी समाज की खेती की ज़मीन को किसी भी कीमत पर गैर-कृषि प्रोजेक्ट में तब्दील नहीं होने देना। प्रशासन को अंदेशा था कि चंपई सोरेन का यह आंदोलन बड़े जनआंदोलन का रूप ले सकता है, इसलिए उन्हें नज़रबंद कर दिया गया और उनके बेटे बाबूलाल सोरेन सहित कई समर्थकों को भी रास्ते में रोककर हिरासत में ले लिया गया। नगड़ी इलाके में पुलिस बल, धारा 144, बैरिकेडिंग, वॉटर कैनन और रबर बुलेट तक की तैयारी की गई।


नगड़ी की घटना में सिर्फ़ चंपई सोरेन को ही नज़रबंद नहीं किया गया, बल्कि उनके बेटे बाबूलाल सोरेन को भी तामाड़ में बैरिकेड लगाकर रोका गया। यही नहीं, आदिवासी आंदोलन के क्रांतिकारी साथी रवींद्र सरदार और उनके साथियों को और हमें भी आगे बढ़ने से रोक दिया गया। यह प्रशासनिक रवैया यह दिखाता है कि सरकार को आदिवासी समाज की एकजुटता और उनके आंदोलन की ताक़त से डर है। यह विडंबना ही है कि जिस सरकार को हेमंत सोरेन “आदिवासी की आबुआ सरकार” कहकर प्रचारित करते हैं, वही सरकार अब आदिवासी हितों और उनके संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ खड़ी नज़र आ रही है। हेमंत सोरेन के पिता और झारखंड आंदोलन के पुरोधा शिबू सोरेन ने अपने जीवनकाल में बार-बार खेती की ज़मीन की रक्षा के लिए किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया था। वे हमेशा इस बात पर ज़ोर देते थे कि खेती की ज़मीन खेती के लिए ही सुरक्षित रहनी चाहिए। लेकिन आज की हेमंत सरकार का चरित्र बिल्कुल बदल गया है। उनकी नीतियाँ अंग्रेज़ी हुकूमत जैसी प्रतीत होती हैं, जबरन ज़मीन अधिग्रहण, आंदोलनकारियों पर दमन और पुलिस बल का अत्यधिक प्रयोग इसी का उदाहरण है। यह स्पष्ट करता है कि तथाकथित “आदिवासी सरकार” आदिवासी समाज की उम्मीदों और विश्वास पर खरी नहीं उतर रही है। पूरा आदिवासी समाज इस दोहरे चरित्र का विरोध कर रहा है और सरकार के इस रवैये को अन्याय व विश्वासघात मान रहा है। ज़मीन, जो आदिवासी के लिए जीवन है, उसके खिलाफ लिया गया हर निर्णय आदिवासी समाज पर अत्याचार है और उसका पुरज़ोर प्रतिरोध होना स्वाभाविक है।


शिबू सोरेन, जिन्हें “गुरुजी” के नाम से जाना जाता है, हमेशा खेती की ज़मीन की रक्षा के लिए आदिवासी किसानों के साथ खड़े रहे। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई बार इस मुद्दे पर आंदोलनकारियों को समर्थन दिया था। गुरुजी कहा करते थे—

“किसान का असली त्यौहार खेत में है, खेती का दिन है तो खेती होगी, हम किसान हैं तो रोपा रोपेंगे।”


उनका यह कथन सिर्फ़ शब्द नहीं बल्कि आदिवासी समाज की आत्मा को प्रकट करता है। खेती आदिवासी जीवन की रीढ़ है और इसे किसी भी कीमत पर बचाए रखना ही असली विकास है।


पुलिस बल की भारी तैनाती, धारा 144, रास्तों पर वॉटर कैनन और जगह-जगह बैरिकेड— यह सब दर्शाता है कि सरकार इस आंदोलन की ताक़त से डर गई थी।


इसी परंपरा और विचारधारा की तुलना जब हेमंत सोरेन की वर्तमान सरकार से की जाती है तो यह साफ हो जाता है कि आज की नीतियाँ गुरुजी की सोच के बिल्कुल विपरीत हैं।

नगड़ी कांड केवल किसानों और नेताओं को रोकने तक सीमित नहीं रहा। इस दौरान लोकतंत्र की आत्मा कही जाने वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19(1)(a)) पर भी सीधा प्रहार हुआ। आंदोलन की कवरेज कर रहे दो स्थानीय पत्रकारों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया। यह घटना लोकतंत्र की जड़ों को हिलाने वाली थी क्योंकि मीडिया का काम सच दिखाना है, लेकिन सरकार ने दमनकारी रवैया अपनाते हुए उन्हें भी आंदोलनकारी समझकर पकड़ लिया। संविधान पत्रकारों को विचार प्रकट करने और सच जनता तक पहुँचाने की स्वतंत्रता देता है, लेकिन जब पत्रकारों पर ही कार्रवाई हो तो साफ हो जाता है कि सरकार को अपनी नीतियों के खिलाफ सच्चाई सामने आने से डर है। आदिवासी समाज पहले से ही कहता आ रहा है कि यह सरकार अंग्रेज़ों की तरह व्यवहार कर रही है, और पत्रकारों को पकड़ना उसी औपनिवेशिक मानसिकता का नया प्रमाण है। यह सवाल उठाता है कि क्या झारखंड में लोकतंत्र अब केवल नाम का रह गया है?



चंपई सोरेन ने सरकार के इस कदम को अलोकतांत्रिक करार दिया और साफ कहा कि आदिवासियों की खेती की ज़मीन को विकास के नाम पर छीनना स्वीकार्य नहीं है। उनका कहना था कि यह ज़मीन हमारे पूर्वजों की धरोहर है, इसे हम किसी भी हाल में नहीं छोड़ेंगे। आदिवासी समाज के लिए ज़मीन केवल एक आर्थिक संसाधन नहीं है, बल्कि यह उनकी संस्कृति, परंपरा और अस्तित्व का प्रतीक है। खेत और बाड़ी से उन्हें भोजन मिलता है, जंगल से लकड़ी, दवा और जीवनयापन का साधन, नदियाँ और पहाड़ धार्मिक आस्था और त्योहारों से जुड़े हैं। ज़मीन पूर्वजों की धरोहर है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती है। इसी वजह से बिरसा मुंडा ने भी अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन के दौरान कहा था—“जल, जंगल, ज़मीन ही आदिवासी का जीवन है।”


कानूनी रूप से देखा जाए तो आदिवासी ज़मीन की रक्षा के लिए कई प्रावधान मौजूद हैं। छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट (CNT Act, 1908) और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट (SPT Act, 1949) इसके प्रमुख उदाहरण हैं। CNT एक्ट में साफ प्रावधान है कि आदिवासी ज़मीन को केवल आदिवासी के बीच ही बेचा या ट्रांसफर किया जा सकता है। खेती की ज़मीन का गैर-कृषि उपयोग प्रतिबंधित है और अगर किसी दिकू या बाहरी ने धोखे से ज़मीन ले भी ली तो मूल आदिवासी परिवार उसे वापस पा सकता है। यही कारण है कि CNT एक्ट को आदिवासियों की ज़मीन की ढाल कहा जाता है। इसी तरह संथाल परगना टेनेंसी एक्ट विशेष रूप से संथाल परगना क्षेत्र की रक्षा करता है। यहाँ ग्रामसभा की मंजूरी के बिना कोई भी भूमि अधिग्रहण संभव नहीं है और कृषि भूमि का गैर-कृषि उपयोग पूरी तरह प्रतिबंधित है। इस प्रकार SPT एक्ट आदिवासी भूमि का कानूनी कवच है।


संविधान में भी आदिवासी अधिकारों की रक्षा के कई प्रावधान हैं। अनुच्छेद 244 और पांचवीं अनुसूची आदिवासी क्षेत्रों के लिए विशेष प्रशासनिक व्यवस्था प्रदान करते हैं। अनुच्छेद 46 अनुसूचित जनजातियों के आर्थिक हितों की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य बताता है। PESA Act, 1996 ग्रामसभा को जल, जंगल और ज़मीन पर अधिकार देता है। वहीं अनुच्छेद 13(2) कहता है कि कोई भी कानून मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकता। इसके बावजूद बार-बार सरकारें विकास और अधिग्रहण के नाम पर इन कानूनों को दरकिनार करती रही हैं।


इतिहास साक्षी है कि आदिवासी समाज ने हमेशा अपनी ज़मीन और पहचान के लिए संघर्ष किया है। 1855–56 में संथाल भाइयों सिद्धू-कान्हू ने अंग्रेजों और जमींदारों के खिलाफ संथाल हूल का बिगुल फूँका था। 1895–1900 में बिरसा मुंडा ने “उलगुलान” आंदोलन चलाकर दिकुओं और अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दी थी। आज़ादी के बाद भी आदिवासी ज़मीन की लड़ाई खत्म नहीं हुई। 2016–17 में जब झारखंड सरकार ने CNT और SPT एक्ट में संशोधन करने का प्रयास किया तो पूरे राज्य में आंदोलन भड़क उठा और अंततः अंग्रेजी सरकार को यह कदम वापस लेना पड़ा। हाल के वर्षों में पाथलगड़ी आंदोलन भी इसी लड़ाई का प्रतीक है, जिसमें आदिवासियों ने अपने गाँवों में संविधान की धाराएँ पत्थर पर लिखकर ग्रामसभा के अधिकारों को प्रमुखता दी।


वर्तमान परिदृश्य में चंपई सोरेन का आंदोलन झारखंड की राजनीति को गहराई से प्रभावित कर रहा है। आदिवासी अधिकारों की लड़ाई में नेतृत्व कर रहा है। वहीं झामुमो और कांग्रेस पर आरोप है कि वे विकास के नाम पर आदिवासियों की खेती की ज़मीन छीन रहे हैं। आने वाले चुनावों में यह मुद्दा निर्णायक साबित हो सकता है क्योंकि झारखंड की राजनीति में आदिवासी अधिकार हमेशा केंद्रीय भूमिका निभाते रहे हैं।


असल समस्या विकास बनाम अस्तित्व की है। सरकार का तर्क है कि स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, उद्योग और रोज़गार के लिए बड़े प्रोजेक्ट आवश्यक हैं। लेकिन आदिवासी समाज का कहना है कि विकास का मतलब उनकी ज़मीन छीनना क्यों होना चाहिए। क्या विकास का मॉडल ऐसा नहीं हो सकता जिसमें आदिवासियों की खेती की ज़मीन सुरक्षित रहे और प्रोजेक्ट के लिए वैकल्पिक ज़मीन का इंतजाम हो? यह सवाल सिर्फ़ झारखंड का नहीं बल्कि पूरे भारत के आदिवासी क्षेत्रों का है। बस्तर, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, नागालैंड और उत्तर-पूर्व में भी यही संघर्ष लगातार चल रहा है।


यदि रिम्स-2 जैसे प्रोजेक्ट खेती की ज़मीन पर बने तो इसके सामाजिक और सांस्कृतिक असर गहरे होंगे। किसान अपनी रोज़ी-रोटी खो देंगे, संस्कृति और परंपरा टूट जाएगी, पलायन और बेरोज़गारी बढ़ेगी और आदिवासी समाज का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। आदिवासी युवाओं के लिए शिक्षा और रोज़गार के अवसर सीमित हैं, ऐसे में यदि उनकी ज़मीन भी छिन जाए तो वे मजबूरन शहरों की ओर पलायन करेंगे और उनकी सांस्कृतिक पहचान धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। यही कारण है कि चंपई सोरेन जैसे नेता इस लड़ाई को राजनीतिक मंच पर भी प्रमुखता दे रहे हैं।


“हल जोतो – रोपा रोपो” आंदोलन प्रतीकात्मक होते हुए भी बेहद गहरा संदेश देता है। हल जोतना बताता है कि यह ज़मीन खेती के लिए बनी है और धान रोपना यह दर्शाता है कि यह ज़मीन जीवन देती है। इसे छीनना न केवल अन्याय है बल्कि संविधान और कानून दोनों का उल्लंघन है। इस आंदोलन ने आदिवासी समाज को यह याद दिलाया है कि अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए उन्हें हर स्तर पर सजग रहना होगा।


कहा जा सकता है कि चंपई सोरेन का नज़रबंद होना केवल एक राजनीतिक घटना नहीं है बल्कि आदिवासी अधिकारों की लड़ाई का नया अध्याय है। CNT/SPT कानून और संविधान आदिवासी ज़मीन की रक्षा करते हैं लेकिन सरकारी नीतियाँ बार-बार उन्हें चुनौती देती हैं। पत्रकारों पर कार्रवाई यह दर्शाती है कि लोकतंत्र पर भी संकट गहराता जा रहा है। यह आंदोलन आने वाले समय में झारखंड की राजनीति, समाज और आदिवासी पहचान पर गहरा असर डालेगा। यह भी स्पष्ट है कि आदिवासी समाज की असली ताकत उसकी ग्रामसभा, परंपरा और एकता में है। सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन अगर ज़मीन बची रहेगी तो आदिवासी बचेंगे और अगर ज़मीन छिन गई तो सबकुछ छिन जाएगा। यही संदेश “हल जोतो – रोपा रोपो” आंदोलन दे रहा है कि यह लड़ाई केवल चंपई सोरेन की नहीं बल्कि हर उस आदिवासी की है जो अपनी धरती माँ की रक्षा करना चाहता है।


अधिक जानकारी/संपर्क करने के लिए अपना विवरण दें

ऐसे ही

ℹ️ सूचनाएं ,📡 न्यूज़ अपडेट्स,🤭 मीम्स, 💼 करियर के मौके, 🇮🇳 देश-दुनिया 🌍 की खबरें, 🏹 आदिवासी मुद्दों और जागरूकता की जानकारी,♥️ जीवन की समस्याओं के समाधान,📱 टेक्नोलॉजी और नई तकनीकों की जानकारीयों की Regular Updates 📰 पाने के लिए हमारे 👇 WhatsApp चैनल 📺 को

🤳करें


🌟 इस जानकारी को सभी के साथ साझा 🤳 करें!


📢 अपने सभी दोस्तों को भेजे एवं सभी ग्रुप में पोस्ट कर अधिक से अधिक लोगों तक ये जानकारी पहुंचाएं।💪 हमारे प्रयासों को मजबूत बनाने और जागरूकता बढ़ाने में मदद करें। 🌍 आपकी भागीदारी समाज और मानवता के विकास के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।


आपके सपनों को साकार करने और आपके अधिकारों की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर।


Like ♥️ l Comment 💬 l Share 🤳

 
 
 

टिप्पणियां


Contact

© 2025 SSMahali.com
© ssmahali.com

Musabani, Jamshedpur

Jharkhand, INDIA - 832104

​​

  • Facebook
  • X
  • Instagram
  • Youtube
bottom of page