
कुड़मी महतो और आदिवासी दर्जा विवाद
- S S Mahali

- 19 सित॰
- 6 मिनट पठन
भारत एक बहुजातीय, बहुधार्मिक और बहुभाषी विविधता का देश है। जहाँ सैकड़ों जातीय और सांस्कृतिक समूह निवास करते हैं। जिसकी सांस्कृतिक पहचान उसकी विविधता से निर्मित होती है। यहाँ की सामाजिक संरचना में जाति, जनजाति और वर्ग का विशेष महत्व है। जनजातीय समुदाय (Tribal Communities) भारत की प्राचीनतम निवासियों में से माने जाते हैं, जिनका जीवन प्रकृति, संस्कृति और परंपराओं से गहराई से जुड़ा हुआ है। संविधान ने इन समुदायों की पहचान और संरक्षण के लिए उन्हें अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes) का दर्जा दिया है। "Tribe" and "Adivasi" are often used interchangeably, they have distinct meanings. "Tribe" refers to a social unit, whereas "Adivasi" means Ancient or Original Inhabitants.

यहाँ का संविधान प्रत्येक समुदाय की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रावधान करता है। इन्हीं प्रावधानों के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribe – ST) वर्ग का गठन किया गया ताकि आदिवासी समाज को शिक्षा, रोजगार, राजनीति और सामाजिक जीवन में उचित अवसर मिल सके। हालिया 14 सितम्बर 2022 को केंद्र सरकार ने 5 राज्यों के 15 जनजातीय समूहों को ST सूचि में शामिल किया अब भारत में आदिवासी जनजातियों की संख्या 715 से अधिक हो गईं है। आदिवासियों को भारतीय संविधान का अनुच्छेद 342, (1) के तहत अनुसूचित जनजातियों (ST) को राष्ट्रपति द्वारा सूचि में शामिल करना या सूचि से हटाने की प्रक्रिया से संबंधित है, जहाँ राष्ट्रपति संबंधित राज्य के राज्यपाल से परामर्श के बाद लोक अधिसूचना द्वारा जनजातियों या जनजातीय समुदायों को शामिल या हटाया जाता हैं।

अनुच्छेद 342, (2) के तहत खंड (1) के अधीन जारी की गई अधिसूचना में किसी पश्चात्वर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जाएगा ऐसा कहा जाया है, यानि कि यदि कोई जनजातीय समूहों को एक बार ST सूचि से हाता दिया जाता हैं तो उनको दोवारा शामिल नहीं किया जा सकेगा।

अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित करने के मानदंडों पर विचार करने के लिए 1965 में लोकुर समिति का गठन किया गया था। इसने किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में पहचानने के लिए पाँच मानदंड सुझाए:
पिछड़ापन,
आदिम लक्षण,
विशिष्ट संस्कृति,
भौगोलिक अलगाव,
व्यापक समुदाय से संपर्क में संकोच।
उपरोक्त सभी मापदंड पाए जाने पर किसी समूह को अनुसूचित जनजाति के रूप में परिभाषित किया जा सकता हैं।
भारत की जातीय विविधता इस तथ्य को भी दर्शाती है कि एक ही भौगोलिक क्षेत्र में विभिन्न जातीय समूहों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान और टकराव दोनों समानांतर रूप से देखने को मिलते हैं। यही कारण है कि कई बार कुछ जातियाँ स्वयं को "आदिवासी" सिद्ध करने का प्रयास करती हैं, जबकि उनका ऐतिहासिक और सामाजिक आधार अलग होता है। लेकिन समय-समय पर यह विवाद उठता रहा है कि कौन-सा समाज आदिवासी की श्रेणी में आना चाहिए और कौन-सा नहीं। इसी संदर्भ में कुड़मी / कुर्मी / कुर्मी / कुनबी महतो समाज का मामला सबसे ताजातरीन है। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में फैले इस समाज ने कई दशकों से आदिवासी दर्जे की मांग की है। जबकि संविधान और वर्तमान कानून के अनुसार इन्हें OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) में शामिल किया गया है।
20वीं शताब्दी के दौरान झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में फैले कुुड़मियों ने उत्तर भारत के कुर्मियों के साथ 1894 में उत्तर प्रदेश में गठित ‘ऑल इंडिया कुर्मी क्षत्रिय महासभा’ के द्वारा क्षत्रिय स्टेटस की मांग की, 1915 में इस संगठन ने भारत के सभी कुर्मियों के लिये क्षत्रिय स्टेटस की मांग की गयी । इन्होंने ब्रिटिशों के साथ मिलकर 1922 में इनके लिये भी क्षत्रिय स्टेटस की मांग की एवं 1929 व 31 में राज्य सरकार व केन्द्र सरकार को इस सम्बन्ध में मेमोरेन्डम दिया और क्षत्रिय के रूप में अपनी स्थिति को ऊंचा किया । ऐतिहासिक रूप से, कुड़मी महतो एक कुलीन वर्ग रहे हैं जो ज़मींदार थे। वे उच्च जाति का दर्जा प्रदर्शित करते हैं और पश्चिमी रार क्षेत्र में स्थित मंदिरों में पुरोहिती कार्य करते थे ।
1929 में मुजफ्फरपुर में आयोजित अखिल भारतीय कुर्मी क्षत्रिय महासभा की 17वीं आम बैठक में तीन मानभूम प्रतिनिधियों ने भाग लिया और वहाँ पहली बार यह निर्णय लिया गया कि छोटानागपुरिया और अन्य कुरमियों की सांस्कृतिक एकरूपता को देखते हुए, मानभूम के कुरमी महासभा (भारतीय कुर्मी क्षत्रिय संघ) के सुझाव और सलाह के अनुसार कार्य करेंगे। तीनों प्रतिनिधि जनेऊ धारण करके घर लौट आए। इसके बाद घघोरझुरी (मानभूम) में महतो लोगों की एक विशाल सभा हुई जिसमें फिर से कुछ गैर-छोटानागपुर कुर्मियों ने भाग लिया। कुर्मियों के जनेऊ धारण करने के अधिकार की और अधिक प्रशंसा की गई और उसे बरकरार रखा गया। संघ द्वारा प्रायोजित मिर्जापुर अधिवेशन में बनारस से कुछ ब्राह्मणों को भी आमंत्रित किया गया था। पूर्व मानभूम जिले में 1922 से 1955 के बीच महतो जाति-जाति की 15 बैठकें निम्नलिखित स्थानों पर आयोजित की गईं:-


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1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ब्रिटिश शासन काल में जनगणना रिपोर्ट (Census Reports): 1871, 1881, 1891 और 1931 की जनगणना रिपोर्टों में कुड़मी/कुर्मी महतो को कृषक जाति (Agricultural Caste) के रूप में दर्ज किया गया है। कहीं भी इन्हें "आदिवासी" या "जनजाति" के रूप में सूचीबद्ध नहीं किया गया।
कालकत्ता विश्वविद्यालय सर्वेक्षण (1931): इस सर्वेक्षण में साफ़ कहा गया कि कुड़मी एक कृषक समुदाय है, जिनका आदिवासी समूहों से कोई प्रत्यक्ष वंशानुगत संबंध नहीं है।
भारत सरकार के गृह मंत्रालय की रिपोर्ट्स: 1931 की जनगणना के बाद, 1950 में जब भारत सरकार ने अनुसूचित जनजाति (ST) और अनुसूचित जाति (SC) की सूची बनाई, तब कुड़मी महतो को ST सूची से हटा दिया गया।
कुड़मी समुदाय मुख्य रूप से झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में खेती-किसानी और ग्रामीण जीवन जीने वाला समाज है।
आदिवासी समाज का मुख्य आधार उनकी विशिष्ट संस्कृति, धर्म और प्रकृति-आधारित जीवन है, जबकि कुड़मी महतो समाज हिन्दू सामाजिक ढांचे (शूद्र वर्ण) के अंतर्गत आता है।
1871 से 2011 तक की सेंसेक्स में कोर्ट में आदिवासी सूची नहीं
2. वर्तमान संवैधानिक स्थिति
राष्ट्रपति आदेश, 1950 (Scheduled Castes and Scheduled Tribes Orders, 1950) के अनुसार, झारखंड, बंगाल और ओडिशा में कुड़मी महतो OBC (Other Backward Class) के तहत सूचीबद्ध हैं। इसलिए संवैधानिक रूप से कुड़मी महतो आदिवासी (ST) नहीं हैं।
ST लाभ (जैसे आरक्षण, छात्रवृत्ति, राजनीतिक सीट आरक्षण आदि) उन्हें प्राप्त नहीं होता।
जाने पूरा विवरण, कुर्मी महतो की इस वीडियो में
3. आंदोलन और मांग
कुड़मी महतो संगठन और समाज पिछले कई दशकों से यह मांग करते आ रहे हैं कि उन्हें पुनः ST में शामिल किया जाए।
इसके लिए उन्होंने झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में कई बार रेल रोको आंदोलन, धरना, प्रदर्शन, और राजनीतिक दबाव बनाए रखा।
उनका तर्क है कि –
उनकी जीवनशैली और संस्कृति आदिवासी समाज जैसी है।
ब्रिटिश अभिलेखों और पुरानी जनगणना रिपोर्टों में वे ट्राइब के रूप में दर्ज थे। 🧐
1950 के राष्ट्रपति आदेश में तकनीकी आधार पर उन्हें हटाया गया, जो अन्यायपूर्ण है।

4. सरकार और आयोगों की रिपोर्ट
केंद्र और राज्य सरकारें कई बार इस मांग पर विचार कर चुकी हैं।
2017 में झारखंड सरकार ने कुड़मी समाज को ST में शामिल करने की सिफारिश केंद्र को भेजी थी।
लेकिन केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय और रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया (RGI) ने यह कहते हुए अस्वीकृत कर दिया कि "कुड़मी समाज की परिभाषा, जीवनशैली और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि मौजूदा ST समुदायों से भिन्न है।"
2023 और 2024 में भी आंदोलन हुए, पर अभी तक केंद्र ने उन्हें ST मान्यता नहीं दी है।
5. जनजातीय समुदायों का विरोध
झारखंड, ओडिशा और बंगाल के मूल आदिवासी (संथाल, मुंडा, उरांव, हो, महली, भूमिज आदि) कुड़मी को ST दर्जा देने का विरोध करते हैं।
उनका तर्क है –
कुड़मी वास्तव में कृषक जाति (OBC) है, उनकी भाषा, संस्कृति और इतिहास अलग है।
यदि कुड़मी को ST दर्जा दिया गया तो मौजूदा आदिवासी समाज का आरक्षण और राजनीतिक प्रतिनिधित्व कमजोर हो जाएगा।
संविधान की धारा 342 के तहत केवल वैज्ञानिक अध्ययन और RGI की सिफारिश से ही ST दर्जा संभव है, आंदोलन से नहीं।
6. हालिया घटनाएँ
सितंबर 2023 में कुड़मी महतो समाज ने झारखंड और बंगाल में रेल रोको आंदोलन किया, जिससे रेलवे सेवाएँ ठप हुईं।
2024-25 में भी आंदोलन जारी है, लेकिन सरकार ने अभी तक सकारात्मक जवाब नहीं दिया।
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में भी मामले दायर हुए हैं, लेकिन कानूनी रूप से अभी कोई बदलाव नहीं हुआ है।
वर्तमान में:
कुड़मी महतो = OBC वर्ग (अनुसूचित जनजाति नहीं)।
संवैधानिक रूप से उन्हें आदिवासी का दर्जा प्राप्त नहीं है।
आदिवासी समाज का रुख: वे इस मांग का विरोध करते हैं और इसे अपने अधिकारों पर हमला मानते हैं।
ST सूची से निष्कासित कुर्मी / कुड़मी जैसे जाति को संविधान में 368 के तहत ही संशोधन के उपरांत ही पुनः दर्जा दिया जा सकता हैं। बिना संविधान के संशोधन के वर्तमान संविधान के अनुसार यह मुमकिन नहीं हैं। अभी की मांग कानूनी आधार पर देखे तो असंवैधानिक माँग हैं।
अधिक जानकारी/संपर्क करने के लिए अपना विवरण दें।
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