
आदिवासीयों को आज़ादी कब मिलेगी?
- S S Mahali

- 14 अग॰
- 5 मिनट पठन
आदिवासी समाज में आज़ादी का अर्थ सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि जल, जंगल, जमीन पर अधिकार, अपनी संस्कृति और पहचान को बनाए रखने की लड़ाई है।

भारत में आज़ादी (15 अगस्त 1947) के बाद भी आदिवासी समाज ने अपनी असली आज़ादी के लिए संघर्ष जारी रखा, क्योंकि उनके लिए असली आज़ादी शासन बदलने से नहीं बल्कि अपनी अस्मिता, संसाधनों एवं स्वशासन के अधिकारों से जुड़ी है।
तिलका माझी, सिदो कान्हु, फूलों झानो, बिरसा मुंडा जैसे नेताओं ने 19वीं सदी के अंत तक अंग्रेजों व उनकी नीतियों के विरोध में विद्रोह किया, जिसमें जल-जंगल-जमीन की रक्षा और आदिवासी अस्मिता को बचाना प्रमुख था।
खरसावां गोलीकांड (1948): आज़ादी के बाद भी, 1 जनवरी 1948 को झारखंड के खरसावां में हजारों आदिवासियों पर पुलिस ने गोली चलाई जब वे अपनी जमीन, संस्कृति और अलग राज्य की मांग कर रहे थे।
आदिवासी अधिकारों के संरक्षण के लिए भारतीय संविधान में “अनुसूचित जनजाति” का प्रावधान दिया गया, लेकिन संसाधनों और स्वशासन की वास्तविक आज़ादी के लिए उनका संघर्ष आज भी जारी है।
विश्व आदिवासी दिवस: संयुक्त राष्ट्र संघ ने 9 अगस्त को "विश्व आदिवासी दिवस" घोषित किया – जो दुनिया भर में आदिवासियों के अधिकारों और पहचान को सम्मान देने के लिए मनाया जाता है। पहली बार यह 9 अगस्त 1994 से मनाया गया।
कई आदिवासी इलाकों में – जैसे बस्तर – जहां कभी विदेशी शासन नहीं आया, वहां के लोग मानते हैं कि वे संसार बनने से आज़ाद हैं, और असली आज़ादी उनके लिए जीवनशैली की आज़ादी है।
आदिवासी की असली आज़ादी कोई एक तारीख़ पर नहीं सीमित है, बल्कि वह एक सतत संघर्ष, अपनी पहचान, संस्कृति, प्राकृतिक संसाधनों के अधिकार, और स्वशासन की भावना में छिपी है। राजनीतिक आज़ादी के बाद भी, उनकी असली आज़ादी का संघर्ष जारी है – जो आज भी उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, और आर्थिक अधिकारों के लिए चलता आ रहा है।
आदिवासी समाज, जिनका जल, जंगल, जमीन और संस्कृति से गहरा रिश्ता है, आज़ादी के 77 साल बाद भी शोषण एवं भेदभाव की अनेक चुनौतियों से गुजर रहा है।
1. आदिवासी महिलाओं के साथ शोषण एवं बलात्कार
पिछले तीन वर्षों (2022-2024) में मध्यप्रदेश में अनुसूचित जाति/जनजाति (SC/ST) महिलाओं के साथ 7,418 बलात्कार, 558 हत्या और 338 सांघिक बलात्कार के केस दर्ज हुए हैं। मतलब, हर दिन औसतन 7 दलित/आदिवासी महिलाएं बलात्कार की शिकार हुईं। घरेलू हिंसा के भी प्रति दिन औसतन 2 मामले दर्ज हुए हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर, बीजापुर एवं सुकमा क्षेत्रों में भी सुरक्षाबलों द्वारा आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार के केस राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक पहुंचे हैं।
कई बार प्रशासनिक ताकतें और बाहरी दबाव भी इन मामलों की रिपोर्टिंग में बाधा बनती हैं, जिससे न्याय की प्रक्रिया बाधित होती है।
2. जल, जंगल, जमीन से बेदखली
विकास परियोजनाओं, खनन, और औद्योगिकीकरण के नाम पर आदिवासियों को उनकी पैतृक भूमि से बिना समुचित पुनर्वास के हटाया जाता है। इससे उनकी आजीविका, पहचान और सांस्कृतिक जीवन खतरे में पड़ जाता है। वनाधिकार कानूनों के बावजूद, बड़े पैमाने पर फॉरेस्ट डिपार्ट्मेंट या निजी कंपनियाँ आदिवासी गाँवों को जमीन से बेदखल करने के प्रयास करती रहती हैं।
सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले भी आदिवासी अधिकारों की रक्षा में स्पष्ट हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर कानून का पालन कमजोर है।
3. आदिवासी संस्कृति का हास्य एवं बाहरी प्रभाव
बाहरी लोग, प्रचार-प्रसार और उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से आदिवासी रीति-रिवाज, भाषा, त्यौहार और परंपराएं कमजोर पड़ रही हैं। कभी-कभी फिल्मों या मीडिया में आदिवासी संस्कृति का हास्य या विकृत चित्रण हो जाता है, जिससे उनकी अस्मिता को ठेस पहुँचती है।
शिक्षा, रोजगार और संपर्क के अभाव में युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति से दूर होती जा रही है।
4. फर्जी इनकाउंटर और अपराधीकरण
नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा बल कई बार बिना पुख्ता सबूत के आदिवासियों को “नक्सली” या “अपराधी” घोषित कर देते हैं, फर्जी इनकाउंटर की अनेक घटनाएँ सामने आई हैं। बेगुनाह आदिवासियों के जेल जाने, उत्पीड़न और मौत के मामले मानवाधिकार संगठनों द्वारा बार-बार उठाए जाते रहे हैं।
इन घटनाओं का असर पूरे समुदाय में भय और असुरक्षा के रूप में रहता है।
5. संवैधानिक अधिकारों से वंचित करना
संविधान में अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष अधिकार, शिक्षा, रोजगार, और स्वशासन की गारंटी दी गई है, लेकिन जमीनी हकीकत में ये अधिकार पूरी तरह नहीं मिल पाते। पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम (PESA) और वन अधिकार अधिनियम (FRA) जैसे कानून लागू तो हैं, लेकिन प्रशासनिक लापरवाही व भ्रष्टाचार की वजह से इनकी सही व्याप्ति नहीं हो पाई। आदिवासी छात्रवृत्ति, आरक्षण और राहत के मामलों में भी भेदभाव की कई घटनाएँ सामने आती रही हैं।
आदिवासी समाज का संघर्ष आज भी जारी है, चाहे महिलाओं के खिलाफ हिंसा हो या सामुदायिक अधिकारों की रक्षा, बाहरी प्रभाव से सांस्कृतिक पहचान की रक्षा हो या न्याय की मांग। जब तक जल-जंगल-जमीन, अस्मिता और संवैधानिक अधिकारों की पूरी गारंटी नहीं होगी, तब तक उनकी असली आज़ादी अधूरी रहेगी।
जो धरती हमारी माँ है, जो जंगल हमारी सांस है, और जो नदी हमारा जीवन है, उसका मालिक हम हैं, लेकिन उसका हक़ हमें अब तक नहीं मिला!
हमारे देश को 15 अगस्त 1947 को अंग्रेज़ों से आज़ादी मिली। हम सबने सोचा कि अब गुलामी खत्म, अब हमारे दिन बदलेंगे। लेकिन क्या वाकई बदल गए?
हमारे पुरखे, जिन्होंने जंगल काटकर खेत बनाए, जिनकी मेहनत से यह धरती बसी — आज वही ज़मीन खतरे में है।
हमारी भाषा, जिसे बोलते हुए हम बड़े हुए, जिसे सुनकर हमें अपनापन महसूस होता है — आज उसे “कमज़ोर” कहकर मिटाने की कोशिश हो रही है।
हमारा धर्म, हमारी परंपरा, हमारे त्योहार जिन्हें हमने पीढ़ी दर पीढ़ी बचाकर रखा — अब बाजार और राजनीति के शोर में दब रहे हैं।
दोस्तों, आज़ादी का मतलब सिर्फ़ झंडा 🇮🇳 फहराना नहीं है।
असली आज़ादी तब है जब —
हमारी ज़मीन पर हमारा हक़ अटूट हो।
हमारी भाषा स्कूल की किताबों में हो।
हमारी संस्कृति पर गर्व हो, शर्म नहीं।
हमारे संवैधानिक अधिकार हमें मिले।
हमारे गांव का फैसला हम लें, न कि कोई और।
हमारे पुरखों ने अंग्रेज़ों से लड़कर हमें देश की आज़ादी दिलाई। अब ज़िम्मेदारी हमारी है, कि हम अपने हक़ के लिए लड़ें, बिना डर के, बिना बिके, और बिना टूटे।
याद रखें, दोस्तों —
अगर हम चुप रहे तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ़ नहीं करेंगी। अगर हम उठ खड़े हुए, तो कोई ताकत हमें रोक नहीं पाएगी।
आओ, हम सब मिलकर कसम खाएँ —
"धरती हमारी, हक़ हमारा — कोई नहीं छीन पाएगा!"
"भाषा हमारी, संस्कृति हमारी — कोई नहीं मिटा पाएगा!"
"आदिवासी की असली आज़ादी — हम ही लेकर रहेंगे!"
जोहार! ✊🏾🌿
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