
हूल की चिंगारी, आज भी ज़रूरी है!
- S S Mahali
- 30 जून
- 8 मिनट पठन
🏹 आदिवासी स्वाभिमान और स्वाधीनता संग्राम के अमर सेनानी सिदो-कान्हू, चाँद-भैरव और फूलो-झानो अमर रहें।

आज 30 जून, हूल दिवस के रूप में संथाल विद्रोह की अमर गाथा को याद करने का दिन है। 1855 में सिदो-कान्हू, चाँद-भैरव और फूलो-झानो के नेतृत्व में शुरू हुआ यह जनआंदोलन ब्रिटिश सत्ता और ज़मींदारी शोषण के विरुद्ध पहला संगठित आदिवासी विद्रोह था। हूल सिर्फ एक लड़ाई नहीं थी, बल्कि "धरती, अस्मिता और अस्तित्व" की हुंकार थी। अंग्रेजी हुकूमत और दिकू शोषण से आज़ाद व स्वतंत्र की लड़ाई थीं। जो आदिवासी अस्मिता और ऐतिहासिक गर्व को दर्शाता है।

लेकिन क्या आज 170 साल बाद भी आदिवासी समाज पूरी तरह आज़ाद है❓आज भी आदिवासी समाज के ऊपर निम्न प्रमुख समस्याओं का संघर्ष कर रहा हैं।
•भूमि अधिग्रहण और जबरन विस्थापन,
•CNT-SPT एक्ट का उल्लंघन,
•ग्राम सभा की उपेक्षा और PESA कानून का सही क्रियान्वयन न होना,
•शिक्षा में पिछड़ापन और मातृभाषा में शिक्षा का अभाव,
•आदिवासी संस्कृति, परंपरा और भाषा का क्षरण,
•स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और जनजातीय क्षेत्रों में डॉक्टरों की अनुपलब्धता,
•धार्मिक रूपांतरण और पारंपरिक आस्था पर हमला,
•बेरोज़गारी और ग्रामीण क्षेत्रों से बड़े पैमाने पर पलायन,
•वन अधिकार कानून (FRA) का गलत इस्तेमाल होना.
•महिला शोषण और मानव तस्करी की घटनाएँ बढ़ना,
•सरकारी योजनाओं का लाभ समय पर न मिलना / भ्रष्टाचार,
•राजनीतिक नेतृत्व में आदिवासी समाज की सीमित भागीदारी,
•खनन और उद्योगों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की लूट,
•आदिवासी इतिहास, नायकों और आंदोलन को पाठ्यपुस्तकों में स्थान न मिलना,
•महिलाओं की पंचायतों में भागीदारी और नेतृत्व की कमी,
•संगठित आदिवासी नेतृत्व और सामाजिक एकजुटता का अभाव,
•सरना धर्म कोड को मान्यता न मिलना।
इतनी सारी समस्या अब भी बनीं हुए हैं।
क्या हमारे पास वह भूमि, जल, जंगल, अधिकार और सम्मान सुरक्षित हैं, जिनके लिए हमारे पुरखों ने हूल किया❓
नहीं।
आज हूल दिवस पर हमें खुद से एक सवाल करना होगा।

क्या हमें एक बार फिर हूल की जरूरत है, लेकिन इस बार कलम, चेतना और संविधान के साथ❓ या पारंपरिक पद्धतियों के साथ ये चिंतन करने का विषय है।

ब्रिटिश शासन के दौरान 18वीं और 19वीं शताब्दी में भारत के वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदायों पर जबरन लगान वसूली, भूमि हड़पने, कर्जदारी, महाजनी शोषण और सांस्कृतिक दमन बढ़ता गया। झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र में भी जमींदार, महाजन और अंग्रेजी हुकूमत द्वारा अत्याचार चरम पर था।
संथाल, मुंडा, हो, महली, भूमिज आदि जनजातियाँ अपने जल, जंगल और जमीन पर सामूहिक स्वामित्व की परंपरा में रहती थीं। ब्रिटिश हुकूमत ने स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था लागू कर इनकी जमीन जमींदारों को दे दी, और महाजनों ने ऊँचे ब्याज पर कर्ज देकर इनकी जमीन हड़पनी शुरू कर दी।

इन परिस्थितियों में संथाल परगना के भोगनाडीह गाँव से सिदो, कान्हू, चाँद, भैरव, फूलो और झानो जैसे महान योद्धा निकले जिन्होंने अपने और आदिवासी समुदाय की स्वतंत्रता और सम्मान के लिए 1855 में संथाल विद्रोह (हूल आंदोलन) का नेतृत्व किया। भारतीय उपमहाद्वीप की क्रांतिकारी गाथाओं में से एक महत्वपूर्ण और आदिवासी समाज के संघर्ष को उजागर करने वाली घटना सिदो और कान्हू मुर्मू के नेतृत्व में 1855 में हुआ हूल विद्रोह (Santhal Rebellion) है। इस विद्रोह ने न केवल संथाल समुदाय, बल्कि पूरे आदिवासी समाज को उनके अधिकारों और पहचान के प्रति जागरूक किया। यह विद्रोह ब्रिटिश शासन और ज़मींदारी व्यवस्था के खिलाफ था, जिसने आदिवासी समाज के मूलभूत अधिकारों का हनन किया था।
मुख्य नेतृत्वकर्ता:
1. सिदो मुर्मू (Sidhu Murmu)
2. कान्हू मुर्मू (Kanhu Murmu)
3. चांद मुर्मू (Chand Murmu)
4. भैरव मुर्मू (Bhairav Murmu)
5. फुलो मुर्मू (Phulo Murmu)
6. झानो मुर्मू (Jhano Murmu)
30 जून 1855 को झारखंड (तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी) के भागलपुर जिले के भोगनाडीह गाँव से इस विद्रोह की शुरुआत हुई। उनकी वीरता और नेतृत्व ने आदिवासी समाज में एक नई जागृति पैदा की। दोनों भाइयों ने शोषण और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई, जिसे संथाल समुदाय के अन्य लोग भी सुनने के लिए तैयार हुए। 1855 में 400 गाँवों के लगभग 50,000 लोग। महाजनों, ज़मींदारों और अंग्रेज़ों के दमन के खिलाफ विद्रोह में शामिल हुए ।
सिदो-कान्हू ने घोषणा की
“अब अंग्रेज़ हमारी मिट्टी से चले जाओ”
सिदो और कान्हू दो बहादुर भाई थे, जिनका जन्म आज के झारखंड के भोगनाडीह गाँव में हुआ था। इन दोनों भाइयों ने न केवल अपने समुदाय के लिए संघर्ष किया, बल्कि एक नई जागरूकता और उन्नति की दिशा में भी अग्रसर किया। उनकी वीरता और नेतृत्व की गाथा आज भी आदिवासी समाज के प्रेरणास्त्रोत के रूप में मानी जाती है।
लेकिन उनकी महानता उनके सामान्य जीवन से बहुत परे थी। वे पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनके भीतर अपने समाज के प्रति गहरी संवेदनशीलता और अन्याय के खिलाफ विद्रोह की भावना थी। 1855 में, जब संथालों का जीवन बुरी तरह से शोषण, अत्याचार और कर्ज के जाल में फंसा हुआ था, तब इन दोनों भाइयों ने संघर्ष का बिगुल बजाया।
सिदो और कान्हू ने अपने समुदाय के लोगों को संगठित किया और उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाई। उनका मानना था कि आदिवासी समाज को अपनी भूमि, संस्कृति और पारंपरिक अधिकारों की रक्षा के लिए खड़ा होना ही होगा। दिशोम हमारा राज तुम्हारा नहीं चाहेगा।
हूल विद्रोह का कारण:
हूल विद्रोह के कारणों को समझने के लिए हमें उस समय के समाजिक और राजनीतिक संदर्भ को देखना होगा। ब्रिटिश शासन के तहत, संथालों और अन्य आदिवासी समुदायों को बुरी तरह से शोषण का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1793 में स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement) लागू किया, जिससे ज़मींदारों को अधिकार मिला कि वे आदिवासियों की पारंपरिक खेती की जमीन को अपनी संपत्ति घोषित कर सकें। इससे संथालों की जमीनें उनसे छीन ली गईं और उन्हें दासवत जीवन जीने को मजबूर किया गया।
आदिवासी क्षेत्रों पर निम्न प्रकार के अत्याचारों ने उन्हें विद्रोह के लिए मजबूर किया:
1. ज़मींदारी और महाजन का शोषण:
ब्रिटिश शासन ने स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement) के तहत जमींदारों को अपनी संपत्ति पर नियंत्रण दिया, जिससे संथालों की ज़मीन छीन ली गई। जमींदारों और महाजनों ने संथालों को अत्यधिक कर्ज में डुबो दिया, और जब वे कर्ज चुकता नहीं कर पाए, तो उनका सब कुछ हड़प लिया गया। इस शोषण ने संथालों को विद्रोह के लिए उकसाया।
2. ब्रिटिश प्रशासन और न्याय व्यवस्था:
ब्रिटिश प्रशासन ने संथालों के मामलों में हस्तक्षेप किया, और स्थानीय न्यायिक तंत्र को महाजनों के पक्ष में कर दिया। संथालों को न्याय मिलने की कोई संभावना नहीं थी। इसके अलावा, महाजनों और व्यापारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश प्रशासन ने संथालों का शोषण किया।
3. रेलवे निर्माण और इसके प्रभाव:
रेलवे की संरचना के दौरान संथालों को भूमि से बेदखल किया गया और उन्हें शोषण का सामना करना पड़ा। रेल कर्मचारी संथालों से मेहनताना नहीं देते थे और रेलवे परियोजनाओं में उनके साथ अत्याचार होते थे। महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और बलात्कार की घटनाएँ भी आम थीं।
4. धार्मिक और सांस्कृतिक अतिक्रमण:
ब्रिटिश शासन और स्थानीय शासकों ने संथालों के धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लंघन किया। संथालों की पारंपरिक व्यवस्था और संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश की गई, जिससे समाज में असंतोष बढ़ा।
सिदो और कान्हू का संघर्ष:
सिदो और कान्हू ने इस शोषण के खिलाफ पहला कदम उठाया। उन्होंने 30 जून 1855 को भोगनाडीह में संथालों को एकत्र किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह की घोषणा की। यह विद्रोह धार्मिक रूप से प्रेरित था, क्योंकि सिदो और कान्हू ने दावा किया कि उन्हें ईश्वर ठाकुर से आदेश मिला था कि वे ब्रिटिश शासन को समाप्त करें और संथालों की स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए संघर्ष करें।
सिदो और कान्हू के नेतृत्व में संथालों ने "हूल विद्रोह" की शुरुआत की, जो धीरे-धीरे पूरे संथाल परगना क्षेत्र में फैल गया। इस विद्रोह में 50,000 से अधिक आदिवासियों ने भाग लिया। उन्होंने अपने पारंपरिक हथियारों जैसे भाले, तीर-कमान, और टांगी का इस्तेमाल किया और ज़मींदारों, महाजनों और ब्रिटिश अधिकारियों को सबक सिखाया।
विद्रोह का परिणाम:
विद्रोह के शुरुआती दिनों में संथालों ने ज़मींदारों और महाजनों के कई किलों को तोड़ा और उनके साथ हुए शोषण का विरोध किया। 7 जुलाई 1855 को महेशलाल दत्ता नामक दरोगा को पकड़ने के बाद विद्रोह ने हिंसक मोड़ लिया, और संथालों ने दरोगा का सिर काट दिया। इसके बाद ब्रिटिश प्रशासन ने इस विद्रोह को कुचलने के लिए पूरी शक्ति लगा दी और मार्शल लॉ लागू किया।
ब्रिटिश सेना ने संथाल विद्रोहियों के खिलाफ अत्यधिक दमन किया। हज़ारों संथाल और अन्य आदिवासी समुदाय के लोग मारे गए और गाँव जलाए गए। अंततः सिदो और कान्हू को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें फांसी दे दी गई। इसके बावजूद, उनके बलिदान ने संथाल समुदाय को एक नई दिशा दी और आदिवासी समुदाय में एकता का संदेश फैलाया।
हूल विद्रोह का ऐतिहासिक महत्व:
हूल विद्रोह केवल संथालों के शोषण के खिलाफ एक संघर्ष नहीं था, बल्कि यह एक आदिवासी समाज की स्वायत्तता की लड़ाई थी। यह विद्रोह ब्रिटिश शासन के खिलाफ पहले बड़े संगठित संघर्षों में से एक था। इस विद्रोह के बाद संथालों को एक विशेष अधिकार प्राप्त हुआ, जिससे उनकी भूमि और संस्कृति की रक्षा हुई।
1. संथाल परगना का निर्माण:
ब्रिटिश शासन ने संथाल विद्रोह के बाद संथाल परगना क्षेत्र का गठन किया, जिसमें आदिवासियों की भूमि की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया गया और उन्हें भूमि अधिकार दिए गए।
2. आदिवासी चेतना का जागरण:
सिदो और कान्हू के नेतृत्व में संथालों का संघर्ष केवल भूमि और अधिकारों के लिए नहीं था, बल्कि यह आदिवासी समाज की समानता, स्वाभिमान और न्याय की लड़ाई थी। उन्होंने आदिवासी समाज को एकजुट किया और उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी।
सिदो और कान्हू मुर्मू का संघर्ष केवल एक आदिवासी विद्रोह नहीं था, बल्कि यह लोकनायकत्व और आदिवासी जागरूकता की महाकाव्य गाथा है। उनके द्वारा शुरू किया गया हूल विद्रोह आदिवासी समुदाय के लिए स्वतंत्रता, सम्मान और न्याय की ध्वजा बन गया। आज भी उनके बलिदान को आदिवासी समाज अपनी संस्कृति, अधिकार और पहचान के प्रतीक के रूप में मनाता है।
इसने हमें यह सिखाया कि अगर जनता एकजुट हो, तो वह किसी भी अत्याचार के खिलाफ खड़ी हो सकती है। सिदो और कान्हू की गाथा आज भी हमारे दिलों में जीवित है, और उनकी वीरता और संघर्ष को हमेशा याद रखा जाएगा।
🌾✊ "फिर एक हूल की ज़रूरत है..." ✊🌾
आज जब हम इतिहास के पन्नों को पलटते हैं, तो सिदो-कान्हू की क्रांति सिर्फ बीते समय की घटना नहीं लगती — बल्कि वर्तमान की पुकार बन जाती है।
हमारा अस्तित्व, हमारी जमीन, हमारी संस्कृति — हर मोर्चे पर आदिवासी समाज को एक बार फिर उसी तरह कुचला जा रहा है, जैसे 1855 में हुआ था।
🪓 महाजनी शोषण बदले रूप में आज भी मौजूद है।
🏛 सरकारी योजनाएँ कागज़ों में हैं, ज़मीन पर हमसे जंगल छीना जा रहा है।
👥 हमारी परंपराएं, व्यवस्थाएं — मज़ाक़ बन चुकी हैं, और न्याय सिर्फ़ चंद लोगों के लिए रह गया है।
ऐसे समय में जब हर दिशा से हमारी अस्मिता पर वार हो रहा है, लगता है जैसे फिर से एक 'हूल' की ज़रूरत है —
एक चेतना की क्रांति,
एक एकता की मशाल,
एक स्वाभिमान की हुंकार!
"जोहार उन सभी योद्धाओं को
जिनका खून आज भी हमारी रगों में बहता है।
और प्रण — कि अब चुप नहीं रहेंगे।"
🛑 आज आदिवासी समाज को बांटा जा रहा है —
नाम के आधार पर, भाषा के आधार पर, धर्म के आधार पर।
📢 और इसलिए...
फिर एक 'हूल' की जरूरत है — लेकिन इस बार बंदूक या टांगी से नहीं, बल्कि एकता, शिक्षा, अधिकार और संविधान की शक्ति से!
“वे मरे नहीं, वे शहीद हो गए।
उनकी आवाज़ आज भी हर आदिवासी दिल में गूंजती है।”
✊ आज हमें संकल्प लेना है, कि —
1. अपनी पारंपरिक व्यवस्था को फिर से जागृत करेंगे।
👉 माझी, परगना, नायके, गोडेत — इन समाजिक व्यवस्कोथा को मज़बूत बनाएंगे।
2. अपने बच्चों को पढ़ाएंगे — ताकि वे कानूनी और प्रशासनिक लड़ाई लड़ सकें।
3. एक-दूसरे पर आरोप नहीं, सहयोग करेंगे।
4. सारना धर्म, आदिवासी पहचान और जमीन की रक्षा करेंगे।
5. झूठे नेताओं से सावधान रहेंगे — और अपने असली हितैषियों को पहचानेंगे।
अंत में मैं यही कहूंगा:
"सिदो-कान्हू मर सकते हैं, लेकिन उनकी आत्मा हर आदिवासी दिल में जीवित है।
अब सवाल ये नहीं है कि अगला सिदो-कान्हू कौन होगा...
बल्कि सवाल यह है कि हम सभी क्या उनके सपनों के लिए उठ खड़े होंगे?"
हूल जोहार 🙏
ऐसे ही
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