ओडिशा के ढेंकानाल, केन्दुझर क्षेत्र के विभिन्न आदिवासी गाँवो के लोगों ने अपने सामाजिक व्थवस्या को सशक्त बनाने के लिए सत्तर से अधिक गाँव के लोग ने अपने गाँव के तीन केन्द्रित स्थानों में एक - एक दिवसीय कार्यक्रम का आयोजित किया था। कार्यक्रम का आयोजन पारम्परिक सव्थशन व्मास्वा के माझी - परगाना बाबा के द्वारा आयोजित किया गया था।

आयोजित सभा में आदिवासी समुदाय के लोगों को समाजसेवी सुकुमार सोरेन ने बताया की भारतीय संविधान के "अनुच्छेद 13 (3) क" के द्वारा हमारी स्वसाशन रूढ़ि या प्रथा व्यवस्था जिसे विधि का बल प्राप्त हैं, हम आदिवासीयों की पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था "ग्राम सभा" को और सशक्त करने के लिए पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था जो निचले स्तर से संचालित हो कर केंद तक जाती हैं। इस संरचना में कार्य करने से ग्राम सभा को मजबूती मिलेगी जो निम्न प्रकार हैं :-
सामाजिक स्वशासन व्यवस्था |
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लॉ बिर बैसी. लॉ मोहोल - दिहरी बाबा |
देश पिंडा - देश परगना बाबा, देश पारानिक बाबा, देश गोदेत बाबा, देश जायरेत, आर सोहेत 100 टी |
दिशोम पिंडा - दिशोम परगना बाबा, दिशोम पारानिक बाबा, दिशोम गोदेत बाबा, दिशोम जायरेत, सोहेत 100 टी |
तोरोप पिंडा ( 7 - 10 पुडसी appx) - तोरोप परगना बाबा, पारानिक बाबा, गोदेत बाबा |
पुडसी पिंडा ( 3 - 10 आतु appx) - मारांग माझी बाबा, पारानिक बाबा, गोदेत बाबा |
माझी बाबा,जोग माझी, नायके बाबा, कुडंम नायके, पारानिक बाबा, गोदेत बाबा |
जयरेत, लासेर हतांग, पुरुधुल, गखुड, बोदरांग |
बारया कोड़ा आर कुड़ी (18 से 25) उम्र - ओल तोल कमी होरा |
बारया कोड़ा आर कुड़ी (25 से 35) उम्र - ओल तोल कमी होरा नेल जोंग |
बारया कोड़ा आर कुड़ी (35 से 45) उम्र - आतु टोला कमी होरा |
बारया कोड़ा आर कुड़ी (45 से 60) उम्र - ओल तोल कमी होरा नेल जोंग |
बारया कोड़ा आर कुड़ी (30 से 50) उम्र - दिशा उदु: ( Dr. Engg's, Teacher's, Police's आर एटा चक्रि आन होड़ को |

साथ ही सुकुमार सोरेन ने वन अधिकार अधिनियम के बारे में भी विस्तृत जानकारी दी उन्होंने बताया की वन भूमि और अन्य वन संसाधनों पर निवास करने वाले आदिवासी समुदायों (अनुसूचित जनजातियों) के अधिकारों पर केंद्रित है, जो
वर्ष 2006 में अधिनियमित FRA वन में निवास करने वाले आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के वन संसाधनों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है, जिन पर ये समुदाय आजीविका, निवास तथा अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक ज़रूरतों सहित विभिन्न आवश्यकताओं के लिये निर्भर थे।
यह वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों (FDST) और अन्य पारंपरिक वनवासी (OTFD) जो पीढ़ियों से ऐसे जंगलों में निवास कर रहे हैं, को वन भूमि पर उनके वन अधिकारों को मान्यता देता है ।
यह FDST और OTFD की आजीविका तथा खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए वनों के संरक्षण की व्यवस्था को मज़बूती प्रदान करता है।
ग्राम सभा को व्यक्तिगत वन अधिकार (IFR) या सामुदायिक वन अधिकार (CFR) या दोनों जो कि FDST और OTFD को दिये जा सकते हैं, की प्रकृति एवं सीमा निर्धारित करने हेतु प्रक्रिया शुरू करने का अधिकार है।

संवेधानिक अधिकारों के जानकार, समाजसेवी सह RTI कार्यकर्त्ता एस एस माहली ने संविधान में निहित 5वी अनुसूची क्षेत्रों के प्रावधान,
Scheduled Caste (हरिजन) & Scheduled Tribe (आदिवासी ) पर हो रहे भेदभाव ,अत्याचार, शोषण और प्रताड़ना को रोकने के लिए एक कानून बनाया गया है। इस कानून को SC/ST Act कहा जाता है। संसद ने 1989 में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 पारित किया। इसके बाद राष्ट्रपति ने 30 जनवरी 1990 को इस पर मुहर लगाई और ये कानून लागू किया गया। एससी/एसटी एक्ट को हिन्दी में [अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून] कहा जाता है और अंग्रेजी में इसे Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act कहा जाता है। इस कानून के अन्तर्गत कुल 5 अध्याय एवं 23 धाराये हैं।
अधिनियम को संविधान के अनुच्छेद 15 (भेदभाव का निषेध), 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन) तथा 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण) में उल्लिखित संवैधानिक सुरक्षा उपायों को ध्यान में रखते हुए अधिनियमित किया गया है, जिसमें सुरक्षा के दोहरे उद्देश्य हैं। यह कमज़ोर समुदायों के सदस्यों के साथ-साथ जाति आधारित अत्याचार के पीड़ितों को राहत और पुनर्वास प्रदान करता है।
इस अधिनियम की धारा 18, 19 और 20 में इस अधिनियम को कड़े बनाने के प्रयास किए गए हैं निम्न तीन बातों को इन तीन धाराओं में जोड़ा गया है:-
1)- एफआईआर दर्ज करते समय किसी जांच की आवश्यकता नहीं होना।
2)- अभियुक्त को अपराधी परिवीक्षा का लाभ नहीं मिलना।
3)- अन्य अधिनियम का प्रभावहीन होना।
FIR दर्ज करते समय किसी जांच की आवश्यकता नहीं होना:- इस अधिनियम की धारा 18(क) के अंतर्गत एक पुलिस अधिकारी को प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज करने हेतु किसी अन्वेषण या पूर्व अनुमोदन की कोई आवश्यकता नहीं होगी। एक पुलिस अधिकारी अपने समक्ष उपस्थित हुए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्य की मौखिक शिकायत पर आवेदन को लिखेगा तथा उसे पढ़कर सुनाएगा और उस पर उस पीड़ित के हस्ताक्षर करवाएगा। यह प्रक्रिया इस अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत की गई है तथा धारा 18(क) में स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया गया है कि कहीं भी कोई पुलिस अधिकारी किसी जांच के संबंध में कोई आश्वासन नहीं देगा। अनुसूचित जाति के सदस्य को शिकायत दर्ज कराने में भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना होता था। उसकी एफआईआर संबंधित पुलिस थाने पर दर्ज नहीं की जाती थी। रसूखदार लोग पुलिस पर रसूख डालकर ऐसे अनुसूचित जाति के सदस्य को दबाने का प्रयास करते थे। पुलिस अधिकारी जांच करने का आश्वासन देकर बात को टालने का प्रयास करते थे।
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति संशोधित अधिनियम (2018) में प्रारंभिक जाँच ज़रूरी नहीं है और अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति पर अत्याचार के मामलों में FIR दर्ज करने के लिये जाँच अधिकारियों को अपने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की पूर्व मंजूरी की भी आवश्यकता नहीं है।
एससी/एसटी एक्ट के तहत सजा का प्रावधान है ?
आदिवासी / हरिजन एक्ट कानून के मुताबिक, अगर कोई किसी आदिवासी / हरिजन व्यक्ति के अधिकारों का हनन करता है तो वह कम से कम 6 महीने और ज्यादा से ज्यादा 7 साल तक के कारावास से दण्डित किया जा सकता है।
एससी/एसटी एक्ट के तहत सहायता या मुआवजा राशि कितनी है ?
यदि किसी आदिवासी / हरिजन वर्ग के व्यक्ति को परेशान अथवा जाति के आधार पर नीचा दिखाया गया है, तो एफआईआर दर्ज होने के बाद ही आर्थिक सहायता पहुचांने का प्रावधान है। अगर दोष सिद्ध हो जाता है तो पीड़ित को केस की ग्रेवेटी के हिसाब से 40000 हजार रुपए से लेकर 5 लाख रुपए देने पड़ सकते हैं।
पेसा कानून 1996
पेसा कानून का पूरा नाम है- पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरियाज एक्ट (Panchayat Extension to Scheduled Areas Act). 1996 में पंचायती राज व्यवस्था में अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार करते हुए पेसा कानून की शुरुआत हुई. आसान भाषा में समझें तो इस कानून की तीन प्रमुख बाते हैं- जल, जंगल और जमीन का अधिकार. इस कानून के जरिए जमीन के अधिकार को सशक्त बनाया गया है.
ज्ञात हो की भारतीय संविधान के पांचवीं अनुसूची में शामिल क्षेत्र, जिन्हें अनुसूचित क्षेत्र के नाम से जाना जाता है।
वर्ष 1992 में भारत के संविधान में 73वें संवैधानिक संशोधन के तहत भाग 9 "पंचायत" को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243 में पंचायत को जोड़ा गया परन्तु और भारत के सभी क्षेत्रो में पंचायत को लागु किया गया परन्तु अनुच्छेद 243 M के तहत पांचवीं और छठी अनुसूचित क्षेत्रों में पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था विद्ममान होने के कारण पांचवीं और छठी अनुसूचित क्षेत्रों में भाग 9 "पंचायत" को रोक लगाई साथ ही राज्य द्वारा बनाया गया पंचायती राज अधिनियम को भी इस क्षेत्र में रोक लगा दी गयी। अनुच्छेद 243 N में पारंपरिक पंचायत को बरक़रार रखने का प्रावधान भी दिया गया इसके उपरांत ही आन्ध्र प्रदेश के उच्य न्यालय मुकदमा दायर किया गया की राज्य द्वारा बनाया गया पंचायती राज अधिनियम को पांचवी अनुसूची क्षेत्र में लागु नहीं किया जा सकता हैं, क्योंकि संविधान में ऐसा वर्णित हैं, इसी आधार पर 1992 के बाद से महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश एवं बिहार में भी राज्य द्वारा लागु पंचायती राज अधिनियम को उच्य न्यालय के आदेश से ख़ारिज कर दिया गया। इसके उपरांत ही पांचवी अनुसूची क्षेत्र में संसद द्वारा पेसा कानून को 24 दिसंबर 1996 को कुछ अपवादों और संशोधनों के साथ संविधान के भाग 9 पंचायत के प्रावधानों को अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तारित करने के लिए इसे अधिनियमित किया गया था।
PESA कानून के प्रदात दधिकारों के तहत आदिवासियों को मजबूत बनाने की बात कही गई है. PESA भारत के अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी लोगों के लिए पारंपरिक ग्राम सभाओं के माध्यम से स्वशासन सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार द्वारा अधिनियमित एक कानून है। दरअसल अनुसूचित क्षेत्र भारत के संविधान की पांचवीं अनुसूची द्वारा पहचाने गए क्षेत्र हैं। यह अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभाओं को विशेष रूप से प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के लिए विशेष अधिकार देता है। पंचायतों से संबंधित संविधान के भाग 9 के प्रावधानों को अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित करने के लिए एक अधिनियम है।
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005
भारतीय संविधान देश के नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है अर्थात् देश के प्रत्येक नागरिक को किसी भी विषय पर अपनी स्वतंत्र राय रखने और उसे अन्य लोगों के साथ साझा करने का अधिकार है, परंतु कई स्वतंत्र विचारकों का सदैव मानना रहा है कि सूचना और पारदर्शिता के अभाव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। सूचना का अधिकार भारत जैसे बड़े लोकतंत्रों को मज़बूत करने और उनके नागरिक केंद्रित विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
सूचना के अधिकार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
वैश्विक स्तर सूचना के अधिकार को एक नई पहचान तब मिली जब वर्ष 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स (Universal Declaration of Human Rights) को अपनाया गया। इसके माध्यम से सभी को मीडिया या किसी अन्य माध्यम से सूचना मांगने एवं प्राप्त करने का अधिकार दिया गया।
अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जैफरसन के अनुसार, “सूचना लोकतंत्र की मुद्रा होती है एवं किसी भी जीवंत सभ्य समाज के उद्भव और विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।”
भारतीय लोकतंत्र को मज़बूत करने और शासन में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से भारतीय संसद ने सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 लागू किया।
सूचना का अधिकार अधिनियम
सूचना का अधिकार (Right to Information-RTI) अधिनियम, 2005 भारत सरकार का एक अधिनियम है, जिसे नागरिकों को सूचना का अधिकार उपलब्ध कराने के लिये लागू किया गया है।
अधिनियम के मुख्य प्रावधान
इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत भारत का कोई भी नागरिक किसी भी सरकारी प्राधिकरण से सूचना प्राप्त करने हेतु अनुरोध कर सकता है, यह सूचना 30 दिनों के अंदर उपलब्ध कराई जाने की व्यवस्था की गई है। यदि मांगी गई सूचना जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित है तो ऐसी सूचना को 48 घंटे के भीतर ही उपलब्ध कराने का प्रावधान है।
इस अधिनियम में यह भी कहा गया है कि सभी सार्वजनिक प्राधिकरण अपने दस्तावेज़ों का संरक्षण करते हुए उन्हें कंप्यूटर में सुरक्षित रखेंगे।
इस अधिनियम के माध्यम से राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद व राज्य विधानमंडल के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) और निर्वाचन आयोग (Election Commission) जैसे संवैधानिक निकायों व उनसे संबंधित पदों को भी सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में लाया गया है।
इस अधिनियम के अंतर्गत केंद्र स्तर पर एक मुख्य सूचना आयुक्त और 10 या 10 से कम सूचना आयुक्तों की सदस्यता वाले एक केंद्रीय सूचना आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है। इसी के आधार पर राज्य में भी एक राज्य सूचना आयोग का गठन किया जाएगा।
यह अधिनियम जम्मू और कश्मीर (यहाँ जम्मू और कश्मीर सूचना का अधिकार अधिनियम प्रभावी है) को छोड़कर अन्य सभी राज्यों पर लागू होता है।
इसके अंतर्गत सभी संवैधानिक निकाय, संसद अथवा राज्य विधानसभा के अधिनियमों द्वारा गठित संस्थान और निकाय शामिल हैं।
राष्ट्र की संप्रभुता, एकता-अखण्डता, सामरिक हितों आदि पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली सूचनाएँ प्रकट करने की बाध्यता से मुक्ति प्रदान की गई है।
RTI अधिनियम के उद्देश्य
पारदर्शिता लाना
जवाबदेही तय करना
नागरिकों को सशक्त बनाना
भ्रष्टाचार पर रोक लगाना
लोकतंत्र की प्रक्रिया में नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित करना
RTI की उपलब्धियाँ
प्रसिद्ध 2G घोटाला
यह घोटाला उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों द्वारा शक्तियों के दुरुपयोग का सबसे प्रमुख उदाहरण है। इस घोटाले के कारण भारत सरकार को 1,76,645 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था। उल्लेखनीय है कि यह बड़ा घोटाला तब सामने आया जब एक RTI कार्यकर्त्ता ने अधिनियम का उपयोग कर इसके खिलाफ एक RTI दायर की।
2010 कॉमनवेल्थ गेम
एक गैर-लाभकारी संगठन द्वारा दायर एक RTI से पता चला था कि दिल्ली सरकार ने राष्ट्रमंडल खेलों के लिये दलित समुदाय के कल्याण हेतु रखे गए फंड से 744 करोड़ रुपए निकाले थे। साथ ही RTI से यह भी सामने आया कि निकाले गए पैसों का प्रयोग जिन सुविधाओं पर किया गया वे सभी मात्र कागज़ों पर ही थीं।
सूचना अधिनियम में हालिया संशोधन
बीते दिनों केंद्र सरकार ने सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में संशोधन किया था, जिस पर कई आलोचकों एवं विश्लेषकों का मानना था कि इस कदम से सूचना का अधिकार कानून की मूल भावना ही खतरे में आ जाएगी।
अधिनियम में मुख्य संशोधन
संशोधन के तहत यह प्रावधान किया गया कि मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों तथा राज्य मुख्य सूचना आयुक्त एवं राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और सेवा की अन्य शर्ते केंद्र सरकार द्वारा तय की जाएंगी।
उल्लेखनीय है कि RTI अधिनियम की धारा-13 में मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों की पदावधि और सेवा शर्तों का उपबंध किया गया था। अधिनियम में कहा गया था कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का वेतन, भत्ते और शर्तें क्रमश: मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के समान होंगी। इसमें यह भी उपबंध किया गया था कि राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्तों का वेतन क्रमश: निर्वाचन आयुक्त और मुख्य सचिव के समान होगा।
संशोधन की आलोचना
कई RTI और सामाजिक कार्यकर्त्ताओं ने केंद्र सरकार के इस कदम की काफी आलोचना की थी। कार्यकर्त्ताओं का कहना था कि इस प्रकार के संशोधन से केंद्र सरकार मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों तथा राज्य मुख्य सूचना आयुक्त एवं राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और सेवा की अन्य शर्तों के निर्धारण संबंधी शक्तियों के अधिग्रहण का प्रयास कर रही है, जिसके प्रभाव से इस संभावना को और अधिक बल मिलता है कि इन पदों पर बैठे लोग सरकार के प्रति अपनी वफादारी साबित करने में ज़्यादा रुचि लेंगे, न कि आम नागरिकों के हित के कार्यों में।

साथ ही समाजसेवी सह देश जायरेत पंचानन सोरेन ने आदिवासियों की सामाजिक व्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिए विस्तृत जानकारी दी एवं आर्थिक पिछड़ापन को दूर करने के लिए आर्थिक विकाश मॉडल को समझाया और विभिन्न सामाजिक ज्वलंत मुद्दों जैसे बाहरी लोगों के द्वारा अतिक्रमण किया गया मरंगबुरु को बचाने के लिए सभी आदीवासी समाज़ को मिल के कार्य करने के लिए आग्रह किया।
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